शौर्यं नमस्कारः - अंग्रेजों का काल वीर बलिदानी सुखदेव

अंग्रेज़ बनाम सुखदेव एवं अन्य

शौर्यं नमस्कारः सीरीज के तीसरे अध्याय में आप सभी का स्वागत है। सीरीज के इस हिस्से में हम बात कर रहे हैं भारत मां के वीर सपूत भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के बारे में। सीरीज के पहले और दूसरे अध्याय में हमने जाना था भारतीय स्वतंत्र क्रांति के वीर बलिदानियों वीर भगत ससिंघ और वीर राजगुरु के बारे में।। आज सीरीज के तीसरे अध्याय में हमारी नजरें अंग्रेजी सल्तनत की डगमगाती जड़ों पर गईं तो कलम से सुखदेव लिख दिया। कोई भूल चूक हुई हो तो माफ कीजिए।

15 मई 1907 को पंजाब के लुधियाना में जन्मे सुखदेव थापर बचपन से ही जोशीले सेभाव के थे। आंखों के सामने अंग्रेजों को अत्याचार करते देख छोटी उम्र से ही उनमें देशप्रेम की भावना हिलोरें मारने लगी थीं।

पिता रामलाल थापर और मां रल्ली देवी के घर जन्मे सुखदेव के जन्म से पहले ही उनके पिता का देहांत हो गया। इसके बाद उनके ताऊजी अचिंतराम ने उनका पालन पोषण किया। बचपन से ही ये इस बात से बेहद नाराज थे कि भारतीय होने के बाद भी यहां के लोगों को अपने देश और वीरों के बारे में कुछ नहीं पता है जबकि हमारा शोषण कर रहे अंग्रेजों का इतिहास हमे बार-बार रटाया जा रहा है। 

लाहौर के नेशनल कॉलेज में पढ़ते हुए एक बार इन्होंने भगत सिंह और अपने कुछ अन्य दोस्तों के साथ मिलकर अंग्रेजों के साथ मारपीट करी थी। इस बारे में जब उनके शिक्षक को पता चला तो उन्होंने इन्हें हिंदुस्तान रिपब्लिक पार्टी से जुड़ने की सलाह दी। तब पूछे जाने पर की क्रांति का यह सफर शुरू करने पर पीछे मुड़ने का कोई विकल्प नहीं है और आराम, प्यार, घर - परिवार सब छोड़ना पड़ेगा। उस समय बिना दूसरा कोई विचार दिमाग में लाए वे और भगत सिंह कह देते हैं कि उनका सपना बस देश की आजादी का है और इसके लिए वे सब कुछ सहने को तैयार हैं।

सुखदेव 'नौजवान भारत सभा' का गठन करने वाले प्रारंभिक सदस्यों में से एक थे। वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन पार्टी के पंजाब यूनिट के अध्यक्ष थे। इसके अलावा वे उत्तर भारत के भी काफी क्षेत्रों में क्रांतिकारी गतिविधियों पर नियंत्रण रखते थे। सुखदेव लाहौर षड्यंत्र केस में सरकार के मुख्य दुश्मन थे। इस केस में सुखदेव इतने खतरनाक माने जा रहे थे कि इस केस फाइल को 'अंग्रेज़ बनाम सुखदेव एवं अन्य' नाम दिया गया। इन्हें और एच.एस.आर.ए पार्टी के अन्य 15 सदस्यों को अंग्रेजों ने बम बनाने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया। इनके ही कुछ साथियों ने इनके खिलाफ गवाही दी और अंग्रेजों के गुप्तचर बन गए। 

वीर भगत सिंह के नेतृत्व में इन्होंने अपने बाकी साथियों के साथ मिलकर जेल में अपने हक के लिए भूख हड़ताल करी। लगभग 63 दिनों तक चली इस हड़ताल में अंग्रेजों ने इन्हें झुकाने की लाख कोशिशें करी, बर्फ की सिल्ली पर इन्हें लिटाकर बहुत मारा गया, पाइप की मदद से इनकी नाक में दूध डालकर भी इनकी भूख हड़ताल तोड़ने की कोशिश करी। मगर इन वीरों के इरादे एक बार भी ना डगमगाए। बाद में इन्हें भी इनके साथी वीर भगत सिंह और वीर राजगुरु के साथ फांसी की सजा सुनाई गई और ये वीर फांसी के फंदे को चूमकर भारत के इतिहास में अमर हो गए।