शौर्यं नमस्कारः - भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु

मा भारती के वीर सपूत : भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु

मां भारती के वे सभी वीर सपूत जो भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त करने के लिए हँसते हँसते सूली से लटक गए - भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु। अपने देश के लिए इन सभी बलिदानियों की वीरता को गोल्डन हिन्द का प्रणाम। भारत मां के ऐसे ही वीर सपूतों के सम्मान में एक खास सीरीज - 

आंखों में अंगारे, हाथों में तलवारें, जुबां पर नारा इंकलाब का ये पहचान थी उन दीवानों कि जिनकी आशिकी कुछ ऐसी मशहूर हुई कि दुनिया ने नाम बलिदान दे दिया। जिनके सपने कुछ ऐसे सच हुए कि वो तो सो गए मगर जो उन्होंने खुली आंखों से देखे वो सपने जाग उठे। जिन्होंने मौत को खेल और जिंदगी को कर्ज़ समझा ये उनकी पहचान थी।

भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, जतिन दास, चंद्र शेखर आजाद, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, बटुकेश्वर दत्त और कितने नाम गिनाऊं आपको। जिनके नाम के आगे चाह कर भी बलिदानी नहीं लिख पा रहा हूं। जिन्होंने अपने नाम के आगे जिंदाबाद का शोर करते नारों को दबाकर इंकलाब को आवाज दी। उन्हे कैसे अपने बीच से गुम मान लूं। आज देश आजाद है, हम सब खुली हवा में सांस ले रहे हैं मगर कुछ गलत होता दिखे तो चिल्लाते हुए कहते हैं -

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाजू ए कातिल में है .....

इसका तो अर्थ भी हम नहीं जानते मगर जिस भाव से उन वीरों ने ये कहा होगा वो तो दिल में बसा है। 

मोहब्बत क्या होती है? ये उनसे पूछो जिन्हे अपनी जिंदगी मौत से सस्ती लगने लगी। दर्द क्या होता है? ये उनसे पूछो जिन्होंने अपनी मां को, भारत मां को बेड़ियों में कैद देखा है।  खाने की कीमत क्या है? महीनों तक भूखे उस पेट से पूछो जिसने सितम को कमजोर और हौसलों को मजबूत बना दिया । शादी तो कितनी मामूली चीज है। उन दीवानों के लिए जिन्होंने फाँसी के तख्ते पर सवार होकर फेरे मौत के लिए। जिन्होंने दुल्हन आजादी को बनाया और यज्ञाहुति में खुद को अर्पित कर आए।

कहानी नहीं कहूंगा उसे मगर जब पढ़ता हूं कि कैसे एक वीर ने अपनी बंदूक से अपनी मौत खुद ही लिख दी, कैसे तीन पागल अपनी मौत को चूमकर मुस्कुराते हुए उसके गले से लिपट गए, कैसे एक सिरफिरा बंगाली दोस्तों से करे वादे की खातिर भूखा ही अमर हो गया तो ये सब आखिर किसी कहानी से कम भी तो नहीं लगता। 

खैर ये सब रही भी कहानियां ही होंगी तभी तो आज इतने वर्षों बाद भी हमें याद है कि असहयोग आंदोलन कब हुआ था मगर ये हम भूल गए कि काकोरी काण्ड में क्या हुआ था? अगर सच होता तो जिस देश में मूर्खों की मूर्खता को बढ़ावा देने के लिए भी अप्रैल फूल का दिन है वहां इन बलिदानियों के बलिदान को याद दिलाता हुआ एक दिन तो अवश्य होता ।