शौर्यं नमस्कारः - सांडर्स का काल राजगुरु
Sunday, 18 Aug 2024 13:30 pm

Golden Hind News

शौर्यं नमस्कारः सीरीज के दूसरे अध्याय में आप सभी का स्वागत है। सीरीज के इस हिस्से में हम बात कर रहे हैं भारत मां के वीर सपूत भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के बारे में। सीरीज के पहले अध्याय में हमने जाना था भारतीय स्वातंत्र्य क्रांति के अमर बलिदानी भगत सिंह के बारे में। आज सीरीज के दूसरे अध्याय में हम देखने वाले हैं राजगुरु के जीवन के सुनहरे प्रष्ठों में। कोई भूल चूक हुई हो तो माफ कीजिए।  

काफी हिंदू धर्म ग्रंथों और वेदों का अध्ययन करने वाले रघुनाथ - जी हां रघुनाथ, इसी नाम से शिवराम हरि राजगुरु को पंडित चंद्र शेखर आजाद की पार्टी ने जाना था। 24 अगस्त 1908 को बॉम्बे प्रेसीडेंसी के खेद नमक कस्बे में जन्मे वीर राजगुरु भारत के उन गुमनामी क्रांतिकारियों में से हैं जिन्होंने हंसते हंसते अपने रक्त से आजाद भारत के पौधे को सींचा था। 

मराठी ब्राह्मण परिवार में मां पार्वती देवी और पिता हरिनारायण राजगुरु के घर जन्मे शिवराम ने 6 वर्ष की छोटी सी उम्र में अपने पिता को खो दिया। पिता के देहांत के बाद घर की जिम्मेदारियों का बोझ उनके बड़े भाई दिनकर के कंधों पर आ गया। इसके कुछ समय बाद वे वाराणसी आ गए। यहां उन्होंने  विद्याध्ययन किया और संस्कृत सीखने लगे। कुशाग्र बुद्धि के धनी राजगुरु ने बहुत कम उम्र में ही लघु सिद्धांत कौमुदी जैसे कठिन ग्रंथ को कंठस्थ कर लिया था। 

विद्याध्ययन के इसी दौर में इनका संपर्क अनेक क्रांतिकारियों से हुआ और यहीं वे पंडित आजाद से भी मिले। राजगुरु उनसे इतने प्रभावित हुए कि उसी क्षण उनकी पार्टी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी से जुड़ गए। युवावस्था में वे सेवा दल के भी सदस्य रह चुके थे। उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रसिद्ध छापामार युद्धनीति बहुत पसंद थी। क्रांतिकारी के लिए अपनी पहचान छिपाना कितना जरूरी था, यह भी वे बखूबी जानते थे। पूरी पार्टी और देश उन्हें उस समय उन्हें उनके छद्म नाम रघुनाथ से जानते थे।

पार्टी में वे पंडित चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और यतींद्रनाथ आजाद के बहुत करीब थे। अंग्रेजी अफसर जॉन सांडर्स को मौत की नींद सुलाने में भी इनका बहुत बड़ा हाथ था। एक सच्चे मित्र और साए की तरह उन्होंने लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने की इस योजना में भगत सिंह और राजगुरु का साथ दिया था।  

राजगुरु ने ही जॉन सांडर्स पर सबसे पहली गोली चलाई थी। उनके बाद वीर भगत ने अपनी पिस्तौल से सांडर्स की बची सांसों का हिसाब भी तय कर दिया। राजगुरु का निशाना इतना सटीक और अचूक था कि कई मोर्चों पर अंग्रेजों ने भी इनके निशाने की तारीफ करी थी। 23 मार्च 1931 को इन्हें भी इनके साथी वीर भगत सिंह और वीर सुखदेव थापर के साथ फांसी दी गई। मौत अपने सामने देखकर भी ये घबराए नहीं और अपने साथियों को आखिरी बार गले से लगाकर फांसी के फंदे से लिपट गए। 

महाराष्ट्र राज्य के पुणे जिले में उनके जन्मस्थान को आज उनके सम्मान में राजगुरूनगर के नाम से जाना जाता है। यह आज खेद तहसील का एक हिस्सा है। इनके घर को इनकी याद में आज तक सँजो के रखा गया है।