शौर्यं नमस्कारः - इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद : देशप्रेम की मिसाल वीर भगत सिंह
Friday, 16 Aug 2024 00:00 am

Golden Hind News

शौर्यं नमस्कारः सीरीज के पहले अध्याय में आप सभी का स्वागत है। पहले अध्याय में आज कलम उठाई तो इंकलाब लिख बैठा और भगत सिंह का ध्यान हो आय। कोई भूल चूक हुई हो तो माफ कीजिएगा। 

" इस कदर वाकिफ है मेरी कलम मेरे जज्बातों से, अगर मैं इश्क लिखना भी चाहूं, तो इंकलाब लिख जाता हूं। "

28 सितंबर 1907 को पंजाब (अब पाकिस्तान) में जन्मे भगत सिंह बचपन से ही क्रांतिकारी मिजाज के थे। कुशाग्र बुद्धि और बलिष्ठ शरीर के धनी भगत ने बचपन से ही जब अपने आसपास देशप्रेम और वीरता का माहौल देखा तो वो उनकी रगों में बस गया । 

भगत सिंह के बारे में एक किस्सा बहुत प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि जब भगत सिंह मात्र 4 साल के थे तब एक बार अपने खेतों में माटी और कंकड़ को हाथ से छू रहे थे। अपने पिता के पूछने पर कि वे क्या कर रहे हैं? बाल भगत बड़े जोश से जवाब देते हैं कि, "वे बंदूकें बो रहे हैं।" वो क्रांति और गर्म लहू तो बचपन से ही वीर भगत सिंह की बातों में झलकता था। अपने चाचा क्रांतिकारी सरदार अजीत सिंह के ईरान जाने के बाद एक बार भगत ने अपनी चाची से कहा था कि, "चाची बड़ा होकर मैं इन अंग्रेजों को देश से निकाल दूंगा। उसके बाद चाचा वापस आ जायेंगे।"

भगत सिंह किसान परिवार से संबंध रखते थे। उनके पिता का का नाम सरदार किशन सिंह और मां का नाम विद्यावती कौर था। 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में जो हत्याकांड हुआ वो भगत सिंह की सोच पर बहुत गहरा प्रभाव डाल गया। महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर भगत सिंह ने उसमें बढ़ चढ़ कर भाग लिया था। उस समय वे गांधी जी को बहुत मानने लगे थे। मगर 1922 में चौरा चौरी कांड के बाद असहयोग आंदोलन बंद कर देने के उनके फैसले से वे बहुत नाराज़ हुए थे और इसी के बाद ये समझ गए कि देश को आजाद कराने के लिए असहयोग के साथ साथ वक्त पड़ने पर हिंसा की भी आवश्यकता है। 

सरदार करतार सिंह सराभा को अपना आदर्श मानने वाले भगत सिंह के जीवन का एकमात्र लक्ष्य अपने देश को आजाद कराना ही नहीं था। दूरदर्शी भगत जानते थे कि इस हालत में देश को आजाद कराने से भारत पूंजीपतियों के हाथों में आ जायेगा। कभी धर्म और कभी पैसों के नाम पर बंट जाने वाले ये लोग देश को लंबे समय तक अखंड रहने नहीं देंगे। लोगों को जागरूक करते हुए वो अक्सर उन्हें धर्म के फासले भुला साथ हो कर अपने वतन के लिए लड़ने को कहा करते थे। 

मां द्वारा उन पर शादी का दबाव डाला जाने पर भगत सिंह ने कहा था कि गुलाम भारत में अगर मेरी शादी होगी तो मेरी दुल्हन केवल मौत होगी। एक बार बलिदानी पंडित चंद्र शेखर आजाद से बात करते हुए भगत सिंह ने कहा था कि ये जीवन तो मैं अपना देश के लिए समर्पित करता हूं मगर अगले जन्म खुल कर आशिकी करूंगा। लाला लाजपत राय की हत्या के बाद अंग्रेजी ऑफिसर जेपी सांडर्स की हत्या करने में भी भगत सिंह की मुख्य भूमिका थी। 

जब भगत सिंह को ऐसा लगा कि अभी भी भारत के लोग उन्हें और उनके उद्देश्य को नहीं जानते हैं, उनकी पार्टी की मूल भावना से अभी भी लोग अनजान हैं तो उन्होंने असेंबली में बम धमाके करने की योजना बनाई। इस योजना को अंजाम देने के लिए निर्धारित की गई तारीख थी 8 अप्रैल 1929। इस दिन असेंबली में अंग्रेजी अफसर जॉर्ज साइमन भी मौजूद था। इस धमाके के पीछे दूसरी वजह अंग्रेजों द्वारा लाए जा रहे पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल का विरोध जताना था। मगर बम फेंकते समय यह ध्यान रखा गया कि किसी को चोट ना पहुंचे क्योंकि इन धमाकों का उद्देश्य केवल बहरों (अंग्रेजों) तक अपनी आवाज पहुंचाना था । 

इस घटना के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर कार्यवाही हुई और उन्हें जेल भेज दिया गया। जेल में जब भगत सिंह ने ये देखा कि कैदी क्रांतिकारियों को खाने के लिए अच्छा खाना नहीं दिया जा रहा है और उनके अधिकारों का हनन हो रहा है, तब उन्होंने भूख हड़ताल करने का फैसला लिया। भगत सिंह ने लगभग 116 दिनों तक भूख हड़ताल करी। इसी दौरान उनके साथी जतीन्द्रनाथ दास भी वीरगति को प्राप्त ही गए। 

बाद में ब्रिटिश कोर्ट ने अपने फैसले में भगत सिंह को उनके साथी राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी की सजा सुना दी। उनके साथी बटुकेश्वर दत्त को कालापानी की सजा हुई। 7 अक्टूबर 1930 को आए इस फैसले में फांसी के लिए 24 मार्च 1931 की तारीख तय करी गई। उनकी फांसी से पहले पूरा देश अंग्रेजों के विरोध में उतर गया और भगत सिंह को फांसी ना देने की मांग करने लगा। इस विरोध से अंग्रेज इतना डर गए कि उन्होंने तय समय से लगभग 12 घंटे पहले ही तीनों वीरों को फांसी पर चढ़ा दिया। आखिरी समय भी ये वीर मुस्कुराते हुए इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते हुए रस्सी चूम अमर हो गए। अंग्रेजों ने इनके मृत शरीरों को सतलज किनारे जलाने की कोशिश करी मगर गांव वालों के देखने के कारण उन्हें नदी में अधजला फेंक कर भाग गए। बाद में उनके परिवार और बाकी देशवासियों ने ससम्मान उनका अंतिम संस्कार किया। 

मगर भगत सिंह केवल उन 23 वर्षों की कहानियां ही नहीं हैं। एक आजाद शायर, एक गुमनाम लेखक, एक बेबाक पत्रकार हैं भगत। 'पगड़ी संभाल जट्टा' की जागरूकता से लेकर मेरा 'रंग दे बसंती चोला' की बुलंद आवाज हैं भगत। देश को आजाद नहीं एक करने वाली नज़र हैं, दुश्मन के गढ़ में जाकर उनको झुकाने वाला शौर्य हैं, महीनों भूखे पेट रहकर अपने हक की आवाज हैं और इन सब से बढ़कर भारत मां के वीर पुत्र, क्रांति का संगीत हैं बलिदानी भगत सिंह।